Sunday, September 1, 2019

''तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं'

फिल्म मसान (2015) और आमिर खान फेम 'सत्यमेव जयते' में कवि दुष्यंत कुमार रचित पंक्तियां 'सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए'  को इसलिए इस्तेमाल किया गया था क्योंकि हिन्दी साहित्य की दुनिया में जब कठिन कविताओं और नामचीन कवियों का बोलबाला था तब इस कालखंड में हिन्दी के एक अलहदा कवि और गजलकार ने साहित्यिक दुनिया में एक अलग पहचान बनाई जिसे "दुष्यंत कुमार" कहते हैं और आज इनकी जयंती है।

1 सितंबर 1933, बिजनौर ज़िला, उ•प्र• में जन्मे दुष्यंत कुमार उन महान कवियों में से एक हैं, जिनकी ना सिर्फ हिन्दी पर मजबूत पकड़ थी बल्कि उर्दू की भी अच्छी जानकारी भी। इन्होंने उर्दू ग़ज़ल को हिन्दी कलेवर में प्रस्तुत किया और शायद यही वजह है कि उन्हें देश का पहला हिन्दी ग़ज़ल लेखक भी कहते हैं।

☝️ एक बात बता दूं कि दुष्यंत कुमार ने साधारण शब्दों और आम बोलचाल की भाषा में लिखना शुरू किया जिसकी वजह से वह लोगों को काफी पसंद आए और अपनी लेखनी पर वह स्वयं कहते थे कि, 'मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ' । यही इनकी खासियत रही ।

☝️ यह भी बहुत खास बात रही कि उन्होंने सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ भी बहुत लिखा। उन्होंने दर्द, प्यार, मुहब्बत, देशभक्ति, देश, यथार्थ लिखा। लोगों को जगाती और झकझोरती रचनाओं को लिखा। भले सरकार से दोस्ती नहीं हुई परंतु लोगों ने इनकी रचनाओं का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। हर लेखक की एक कालजई रचना होती है तो किसे ये पंक्तियां याद नहीं कि 'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए' ।

🤩 मैं भी चाहता हूं कि उनकी तरह कविताओं के अतिरिक्त हिन्दी कलेवर युक्त ग़ज़ल लिख सकूं जिसका लोहा उस दौर के हर बड़े शायर और कवियों ने माना था ।

🙏 तो आइए, आज उनके जन्मदिन के अवसर पर उनकी कुछ खास कविताओं और ग़ज़लों के अंशों को देखिए;

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीक़ा भी निकालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

ये ज़बाँ हम से सी नहीं जाती
ज़िंदगी है कि जी नहीं जाती
एक आदत सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
मुझ को ईसा बना दिया तुम ने
अब शिकायत भी की नहीं जाती

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है
फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए
हम को पता नहीं था कि इतना ढलान है

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा

💝 उर्दू ग़ज़ल को हिन्दी माटी से निर्मित कुछ शेर देखिए कि 👇

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

😍 और अब उनकी सबसे चर्चित ग़ज़ल 😍

🔥 हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए 🔥

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर हर गली में हर नगर हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

धन्यवाद 🙏
संजय संज

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